ईरान में सुन्नी मुसलमानों के खिलाफ अत्याचार: 'या अली' और 'या ग़ौस' का नारा

9/20/20251 min read

people gathering near dome building
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परिचय

ईरान एक ऐसा देश है जहाँ धार्मिक पहचान का गहरा प्रभाव राजनीतिक और सामाजिक संरचनाओं पर पड़ता है। यहाँ की शिया बहुसंख्या, सुन्नी मुसलमानों के लिए एक चुनौतीपूर्ण वातावरण उत्पन्न करती है। इस वातावरण में, सुन्नी समुदाय को न केवल धार्मिक असमानता का सामना करना पड़ता है, बल्कि उन्हें राजनीतिक अधिकारों से भी वंचित रखा जाता है। यह ताकतवर धार्मिक संस्थाएं और सरकारी नीतियां, जो मुख्यतः शियाओं के दृष्टिकोण से संचालित होती हैं, सुन्नी मुसलमानों के प्रति भेदभाव को बढ़ावा देती हैं।

ईरानी सरकार की नीतियों से यह स्पष्ट होता है कि सुन्नी मुसलमानों को अक्सर शिक्षा, नौकरियों और अन्य सामाजिक अवसरों में सीमित किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप, सुन्नी समुदाय आर्थिक और सामाजिक असमानता का सामना कर रहा है। यह स्थिति उन सुन्नी मुसलमानों की धार्मिक पहचान और उनके अधिकारों के लिए एक गंभीर चुनौती प्रस्तुत करती है। यहाँ पर 'या अली' और 'या ग़ौस' जैसे नारों का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इनका सूफी और शियाई परंपरा में एक गहरा इतिहास है।

इन नारों का उपयोग केवल धार्मिक प्रार्थना के रूप में नहीं किया जाता, बल्कि ये राजनीतिक संदर्भ में भी महत्वपूर्ण होते हैं। 'या अली' का नारा शिया मुसलमानों की आध्यात्मिक पहचान को दर्शाता है, जबकि 'या ग़ौस' सूफियों की परंपरा से जुड़ा हुआ है। यद्यपि ये नारें एक समुदाय के समर्पण का प्रतीक हैं, परंतु जब ईरान की शासन सत्ता का अध्ययन किया जाता है, तो यह देखा जाता है कि इन नारों का प्रयोग अन्य धार्मिक समुदायों के प्रति भेदभाव के एक उपकरण के रूप में भी किया जाता है।

ईरान में धार्मिक भेदभाव

ईरान में धार्मिक भेदभाव का मुद्दा एक गंभीर चिंता का विषय है, जहां सरकार शिया विचारधारा को प्राथमिकता देती है और सुन्नी मुसलमानों के अधिकारों का उल्लंघन करती है। ईरान की राजनीतिक और सामाजिक संरचना शियाओं के लिए बनी हुई है, जिससे सुन्नी मुसलमानों के लिए समुचित अधिकारों का अभाव है। ईरान के संविधान और कानूनों में स्पष्ट रूप से शिया इस्लाम को राज्य धर्म के रूप में स्थापित किया गया है, जबकि अन्य संप्रदायों, विशेष रूप से सुन्नियों, के प्रति नकारात्मक और भेदभावपूर्ण नीतियाँ अपनाई जाती हैं।

उदाहरण के तौर पर, सुन्नी मुसलमानों को धार्मिक स्थलों, मुसलमानों के लिए प्रार्थना स्थलों और धार्मिक समारोहों में भाग लेने के लिए गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। सरकार ने सुन्नी समुदायों की धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं का सम्मान करने में अनिच्छा दिखाई है, जिसके परिणामस्वरूप कई सुन्नी मुस्लिम हस्तियों को गंभीर प्रताड़नाओं का सामना करना पड़ा है। इस मुद्दे को समझते हुए, ऐसे कई मामलों का उल्लेख किया जा सकता है, जहां सुन्नी मुसलमानों को झूठे आरोपों में गिरफ्तार किया गया या अनियंत्रित रूप से प्रताड़ित किया गया।

ईरान की सरकारी नीतियाँ भी सुन्नी मुसलमानों के खिलाफ भेदभावपूर्ण हैं। उन्हें कुचलने के लिए अनेक तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है, जैसे: सुन्नी धार्मिक शिक्षकों की आवाज़ का दमन करना, उनके स्कूलों और मादरसा संस्थानों पर निगरानी रखना तथा उनके धार्मिक आयोजनों पर कड़ाई से प्रतिबंध लगाना। ये सभी प्रयास शियाओं के अनुशासन के साथ सुन्नी मुसलमानों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए किए जाते हैं।

सुन्नी मुसलमानों की स्थिति

ईरान में सुन्नी मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति पर विचार करते समय, यह स्पष्ट होता है कि उन्हें कई गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। ईरान के धार्मिक तंत्र में, जो मुख्य रूप से शियाओं द्वारा नियंत्रित है, सुन्नी समुदाय को अक्सर हाशिए पर रखने की प्रवृत्ति देखी जाती है। इस प्रकार के भेदभाव का प्रभाव उनकी शिक्षा, रोजगार और धार्मिक स्वतंत्रता पर भी पड़ता है।

शिक्षा के क्षेत्र में, सुन्नी मुसलमानों के लिए समुचित अवसरों का अभाव है। कई क्षेत्रों में, विशेष रूप से उन स्थानों पर जहां सुन्नियों की संख्या अधिक है, स्थानीय सरकारें और शिक्षा संस्थान उनकी जरूरतों को नजरअंदाज करते हैं। इससे यह समुदाय उच्च शिक्षा और पेशेवर विकास के अवसरों से वंचित रहता है। इसके परिणामस्वरूप, सामाजिक-आर्थिक स्थिति में गिरावट आती है, जिससे सुन्नी मुसलमानों की गरीबी और बेरोजगारी की दर में वृद्धि होती है।

आर्थिक दृष्टि से भी, ईरान में सुन्नी मुसलमानों के लिए पर्याप्त रोजगार के विकल्प सीमित हैं। सरकारी नौकरियों और विकास परियोजनाओं में इनकी भागीदारी बहुत कम है, जिससे वे आर्थिक रूप से कमजोर श्रेणी में आ जाते हैं। यह स्थिति उनके स्वास्थ्य, आवास और अन्य सामाजिक सेवाओं तक पहुँच को प्रभावित करती है, जिससे उनके जीवन स्तर में कमी आती है।

धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में, सुन्नी मुसलमानों को भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। अपने धार्मिक अधिकारों के लिए आवाज उठाने पर अक्सर उन्हें दमन और प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार की चुनौतियाँ, जो समाज में समता और सहिष्णुता की भावना को कम करती हैं, सुन्नी मुसलमानों के लिए एक भयावह वास्तविकता बनी हुई हैं। ईरान में सुन्नी समुदाय का भयावह संघर्ष उनके अधिकारों की बहाली और सामाजिक साक्षरता के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए आवश्यक है।

अत्याचार के उदाहरण

ईरान में सुन्नी मुसलमानों के खिलाफ अत्याचार के विभिन्न दृष्टांत, इस समुदाय के शांति प्रिय जीवन को प्रभावित कर रहे हैं। इन अत्याचारों में सरकारी दमन, धार्मिक आयोजनों पर प्रतिबंध और अन्य कई गंभीर मामले शामिल हैं। उदाहरण के लिए, कई बार सुन्नी मुसलमानों को अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार प्रार्थना करने की अनुमति नहीं दी जाती। उनके धार्मिक स्थलों को बंद कर दिया जाता है और सामुदायिक सभाओं पर सख्त पाबंदियाँ लगाई जाती हैं।

ईरान की सरकार नियमित रूप से सुन्नी अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों को स्वतंत्रता के लिए उनकी मांगों के कारण गिरफ्तार करती है। 2022 में, एक विशेष घटना में, कई सुन्नी नेताओं को उनकी धार्मिक गतिविधियों के चलते हिरासत में लिया गया। इन गिरफ्तारियों का उद्देश्य इनके धार्मिक अधिकारों को दबाना और असहमति को नियंत्रित करना था। इस प्रकार के कार्रवाईयों का एक बड़ा प्रभाव सुन्नी मुसलमानों की सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों पर पड़ता है।

इसके अलावा, जेलों में सफाई की स्थिति और दंडात्मक उपचार भी एक गंभीर मुद्दा है। यहां, सुन्नी मुसलमानों को बेहद खराब दशाओं में रखा जाता है, जहां उन्हें उचित चिकित्सा सुविधा और मानवीय व्यवहार नहीं मिलता। धार्मिक अल्पसंख्यक होने के नाते, इन्हें प्रायः शारीरिक और मानसिक अत्याचारों का सामना करना पड़ता है।

इन सभी कारकों ने यह सिद्ध किया है कि ईरान में सुन्नी मुसलमानों को निरंतर उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, जिसमें दमन, जेलों में दंड और धार्मिक आयोजनों पर रोकथाम शामिल हैं। ये अत्याचार न केवल उनके धार्मिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों का उल्लंघन हैं, बल्कि यह भी दर्शाते हैं कि एक समानता और सहिष्णुता की कमी किस प्रकार समाज में विद्यमान है।

वैश्विक प्रतिक्रिया

ईरान में सुन्नी मुसलमानों के खिलाफ अत्याचार पर वैश्विक प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह मानवाधिकारों के उल्लंघनों को उजागर करता है। अनेक अंतरराष्ट्रीय संगठनों, जैसे कि मानवाधिकार वॉच, नेईरान में धार्मिक उत्पीड़न के बारे में रिपोर्ट जारी की हैं। इन रिपोर्टों में वहाँ के सुन्नी मुसलमानों को संबोधित संकट के बारे में गहन जानकारी प्रस्तुत की गई है। कुछ संगठन, जैसे कि यूनाइटेड नेशंस, ने ईरान सरकार को उनके कार्यों के लिए जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की है और उनके खिलाफ कार्रवाई के लिए दबाव बनाया है।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय के प्रमुख देशों, जैसे कि अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन, ने भी ईरान में उत्पीड़न की आलोचना की है। इन देशों ने ईरान पर प्रतिबंध लगाने की रणनीति अपनाई है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि ईरानी सरकार धार्मिक असहिष्णुता की नीति को समाप्त करे। राज्य के बाहर आपातकालीन सहायता प्रदान करने वाले कई संगठनों ने भी सुन्नी मुसलमानों को सुरक्षा एवं सहायता मुहैया कराने का प्रयास किया है।

इसी प्रकार, मुस्लिम देशों ने भी इस मुद्दे पर अपनी आवाज उठाई है। पाकिस्तान और तुर्की ने ईरान में घटित घटनाओं पर चिंता व्यक्त की है, और इन देशों ने ईरानी सरकार से उत्पीड़न को समाप्त करने का आग्रह किया है। इस संदर्भ में जिनेवा मानवाधिकार सम्मेलन में सुन्नी मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रस्ताव पेश किया गया था। यह वैश्विक सूक्ष्मदृष्टि का संकेत है कि धार्मिक स्वतंत्रता केवल एक राष्ट्रीय समस्या नहीं, बल्कि एक मानव अधिकार है, जिसे सभी देशों द्वारा बचाना आवश्यक है।

समुदाय की आवाज़

ईरान में सुन्नी मुसलमानों के खिलाफ अत्याचार की कहानियाँ गंभीर और हृदय विदारक हैं। कई ऐसे व्यक्तित्व हैं जो नेशनल और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी आवाज उठाने में असफल हो गए हैं। ऐसे में, उन सुन्नी मुसलमानों की व्यक्तिगत témoignages उनकी स्थिति की वास्तविकता को उजागर करने में महत्वपूर्ण हैं। ये कहानियाँ न केवल भयावहता का चित्रण करती हैं, बल्कि यह भी दर्शाती हैं कि किस प्रकार समुदाय के सदस्य अपने धार्मिक विश्वासों के कारण भेदभाव और हिंसा का सामना कर रहे हैं।

एक सुन्नी मुसलमान के अनुसार, उसने यह अनुभव किया कि जब भी वह अपनी धार्मिक पहचान के अनुसार प्रार्थना करने की कोशिश करता है, तो उसे पुलिस द्वारा अत्याचार का शिकार होना पड़ता है। ऐसे कुछ प्रसंग हैं जिनमें सुन्नी मुसलमानों को अपनी धार्मिक गतिविधियों के लिए सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया है। उनकी प्रार्थनाओं का स्थान, जो कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व रखता है, उन्हें पहले से ही बंद कर दिया गया है। ऐसे कर्मों से उनकी आस्था पर गहरा असर पड़ा है।

एक अन्य कहानी में, एक युवा सुन्नी मुस्लिम महिला ने अपने परिवार के अपमान और शोषण के बारे में बताया। वह महसूस करती है कि उनकी पहचान उन्हें केवल खतरे में नहीं डालती, बल्कि उनके भविष्य के सपनों को भी छीन लेती है। इस प्रकार की चिंताएँ परिवारों और समुदायों में एक डर और असुरक्षा की भावना को जन्म देती हैं, जो ईरान में सुन्नी मुसलमानों की स्थिति को और अधिक कठिन बनाते हैं।

इन व्यक्तिगत अनुभवों के माध्यम से, हम समझ पाते हैं कि ईरान में सुन्नी मुसलमानों के खिलाफ अत्याचार केवल राजनीतिक नहीं हैं, बल्कि ये एक निश्चित धार्मिक पहचान के प्रति सामाजिक भेदभाव के रूप में भी देखे जा सकते हैं।

निष्कर्ष

ईरान में सुन्नी मुसलमानों के खिलाफ अत्याचारों ने न केवल धार्मिक समर्पण को प्रभावित किया है, बल्कि इसके सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश पर भी गहरा प्रभाव डाला है। यह अत्याचार लंबे समय से जारी हैं और इसके तहत विभिन्न प्रकार की ज्यादतियाँ की जा रही हैं। ऐसी स्थिति में, 'या अली' और 'या ग़ौस' के नारों का उपयोग केवल राजनीतिक या धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि सामुदायिक एकता और समर्थन का प्रतीक बन गया है। ये नारे सुन्नी समुदाय के भीतर एकजुटता को बढ़ावा देते हैं और उनके संघर्ष में एक साझा आवाज के रूप में काम करते हैं।

समुदाय के लोग इस विचार के इर्द-गिर्द एकत्रित होते हैं कि वे न केवल अपने धार्मिक विश्वासों की रक्षा कर रहे हैं, बल्कि यह भी सुनिश्चित कर रहे हैं कि उनकी आवाजें सुनी जाएँ। इससे यह स्पष्ट होता है कि ईरान में सुन्नी मुसलमानों के खिलाफ अत्याचारों का मुद्दा केवल एक धार्मिक विवाद नहीं है, बल्कि यह मानवाधिकारों और न्याय का सवाल भी है। ऐसी परिदृश्यों में 'या अली' और 'या ग़ौस' जैसे नारों का महत्व समाज में भावनात्मक और आध्यात्मिक समर्थन प्रदान करने के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है। इन नारों के माध्यम से, सुन्नी समुदाय अपनी कमजोरियों और संघर्षों को एक साझा मंच पर लाता है, जिससे उन्हें सामूहिक संकल्प और साहस मिलता है।

इस संदर्भ में, हमें यह समझना होगा कि ईरान में सुन्नी मुसलमानों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन और संवाद की आवश्यकता है। एकजुटता और सामर्थ्य के प्रतीक के रूप में, 'या अली' और 'या ग़ौस' हमारे समाज में समानता और न्याय की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसके साथ ही, हमें इसके महत्व को स्वीकार करने और इस दिशा में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।